पातंजलि योगसूत्र में पंच क्लेशों का दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन
लेखक: डॉ. बलवंत सिंह, ठाणे
प्रस्तावना
पातंजलि योगसूत्र भारतीय दर्शन का एक महान ग्रंथ है, जो योगदर्शन का आधारभूत शास्त्र माना जाता है। इसमें मानव जीवन के दुःखों के मूल कारणों, उनके स्वरूप तथा निवारण के उपायों का गूढ़ विवेचन मिलता है। योगसूत्र के द्वितीय अध्याय ‘साधनपाद’
में महर्षि पतंजलि ने पंच क्लेशों का वर्णन किया है, जो मानव के मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक बंधनों के कारण हैं। इन क्लेशों को समझना एवं उनका निवारण करना योगसाधना का प्रमुख लक्ष्य है, क्योंकि क्लेश ही मनुष्य के दुःख और अशांति के मूल हैं।
पंच क्लेशों का सूत्र रूप में वर्णन
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥ (योगसूत्र २।३)
इस सूत्र में पातंजलि ने पाँच क्लेश बताए हैं:-
1. अविद्या (Avidyā)
2. अस्मिता (Asmitā)
3. राग (Rāga)
4. द्वेष (Dveṣa)
5. अभिनिवेश (Abhiniveśa)
ये पाँचों क्लेश मानव मन के भीतर गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं, जो उसे संसार के दुःखों में बाँधते हैं।
१. अविद्या (Avidyā): अज्ञान का क्लेश
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥ (योगसूत्र २।५)
·
दार्शनिक दृष्टि से: अविद्या का अर्थ है- वास्तविक और अवास्तविक में भेद न कर पाना। जब मनुष्य असत्य को सत्य समझ लेता है, अनित्य को नित्य मानता है, दुःख को सुख समझता है, और अनात्म को आत्म मानता है, तब वह अविद्या के प्रभाव में होता है। यही अज्ञान संसारिक बंधनों का मूल कारण है।
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से: अविद्या वह मानसिक भ्रम है जो व्यक्ति की धारणा, व्यवहार और निर्णय पर पर्दा डाल देता है। मनोविज्ञान में इसे cognitive distortion या false belief system कहा जा सकता है। यह क्लेश व्यक्ति को असंतोष, भय, और भ्रम की स्थिति में रखता है।
·
निवारण: अविद्या का नाश ज्ञान से होता है। स्वाध्याय,
सत्संग, और ध्यान के द्वारा विवेक जाग्रत होता है, जिससे अज्ञान का अंधकार दूर होता है।
२. अस्मिता (Asmitā): अहंकार या ‘मैं’ की भावना
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥ (योगसूत्र २।६)
·
दार्शनिक दृष्टि से: अस्मिता का अर्थ है- आत्मा और बुद्धि (अहंकार) की एकात्मता का भ्रान्त ज्ञान। जब व्यक्ति अपनी चेतना को केवल देह, बुद्धि या मन तक सीमित कर देता है, तो ‘अस्मिता’ उत्पन्न होती है। यह ‘अहं’ का भाव व्यक्ति को आत्मा से दूर कर देता है।
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से: अस्मिता आत्मकेंद्रितता (ego-centric
behavior)
का रूप है। यह व्यक्ति के self-concept
को विकृत कर देती है, जिससे वह दूसरों से श्रेष्ठता या हीनता की तुलना में जीने लगता है। इससे व्यक्ति के संबंधों में टकराव और असंतोष उत्पन्न होता है।
·
निवारण: अस्मिता का शमन अहंकारत्याग और आत्मदर्शन
से संभव है। ध्यान, समर्पण, और निस्वार्थ कर्म से ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना क्षीण होती है।
३. राग (Rāga): आसक्ति का क्लेश
सुखानुशयी रागः॥ (योगसूत्र २।७)
·
दार्शनिक दृष्टि से: जब व्यक्ति सुखद अनुभवों के प्रति आसक्त हो जाता है, तो राग उत्पन्न होता है। यह राग पुनः जन्म-जन्मान्तर में कर्मबंधन का कारण बनता है।
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से: राग मनोवैज्ञानिक रूप से emotional attachment या addiction के समान है। व्यक्ति किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति से इस प्रकार जुड़ जाता है कि उसके बिना असुरक्षा या असंतोष अनुभव करता है।
·
निवारण: राग का निवारण वैराग्य से होता है:-
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् (योगसूत्र 1.15)
वैराग्य का अर्थ है आसक्ति का अभाव, जो न तो अनुभव से उत्पन्न सुख में लिप्त होता है और न दुःख में डूबता है।
४. द्वेष (Dveṣa): घृणा या विरक्ति का क्लेश
दुःखानुशयी द्वेषः॥ (योगसूत्र २।८)
·
दार्शनिक दृष्टि से: द्वेष वह मानसिक विकार है जो दुःखद अनुभवों की स्मृति से उत्पन्न होता है। यह व्यक्ति को नकारात्मक ऊर्जा से भर देता है और आध्यात्मिक विकास में बाधा बनता है।
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से: द्वेष अवचेतन में दबी नकारात्मक भावनाओं (repressed
emotions)
का परिणाम है। यह तनाव, ईर्ष्या, और अवसाद को जन्म देता है।
·
निवारण: द्वेष का शमन मैत्रीभाव और क्षमाभाव
से होता है। योग में:-
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्
जब
हम-
·
खुश
रहने वालों से प्रेम करें,
·
दुःखियों
पर दया करें,
·
अच्छे
कर्म करने वालों की प्रशंसा करें,
·
और
बुरे आचरण वालों को बिना क्रोध के अनदेखा करें,
तो हमारा मन स्वतः शांत और निर्मल हो जाता
है।
५. अभिनिवेश (Abhiniveśa): मृत्यु भय या जीवन से चिपकाव
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥ (योगसूत्र २।९)
·
दार्शनिक दृष्टि से: अभिनिवेश का अर्थ है- जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्ति और मृत्यु का भय। यह क्लेश ज्ञानी पुरुषों में भी विद्यमान रहता है। यह आत्मा के अमरत्व के ज्ञान के अभाव का परिणाम है।
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से: अभिनिवेश fear
of death
या existential anxiety से सम्बंधित है। यह मनुष्य की सबसे गहरी प्रवृत्तियों में से एक है, जो उसे निरंतर चिंता और असुरक्षा में रखती है।
·
निवारण: अभिनिवेश का निवारण आत्मसाक्षात्कार
से होता है। जब साधक आत्मा के अमर स्वरूप का अनुभव करता है, तब मृत्यु का भय स्वतः नष्ट हो जाता है।
क्लेशों का पारस्परिक संबंध
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्त-तनु-विच्छिन्न-उदाराणाम्॥ (योगसूत्र २।४)
भावार्थ
अविद्या ही अन्य चार क्लेशों: अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेशकी उत्पत्ति का मूल आधार (क्षेत्र) है। ये चारों क्लेश कभी-
· प्रसुप्त (सोई हुई अवस्था),
· तनु (सूक्ष्म या मंद अवस्था),
· विच्छिन्न (क्षणिक रूप से दबे हुए) अथवा
· उदार (प्रकट और प्रबल रूप में) दिखाई देते हैं।
इन सभी अवस्थाओं का कारण अविद्या ही है। जब अविद्या का नाश होता है, तो शेष चारों क्लेश (अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) अपने-आप समाप्त हो जाते हैं।
क्लेशों का निवारण (निरोध मार्ग)
पातंजलि ने क्लेशों के निवारण हेतु दो प्रमुख उपाय बताए हैं:-
·
क्लेशतनूकरणम् (क्षीण करना): ध्यान, साधना, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान द्वारा क्लेशों की तीव्रता कम करना।
·
क्लेशनिवृत्ति (पूर्ण नाश): अष्टाङ्गयोग के अभ्यास से, विशेषतः ध्यान
और समाधि
के द्वारा, जब चित्तवृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, तब क्लेशों का नाश हो जाता है।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥ (योगसूत्र १।२)
दार्शनिक सारांश
दार्शनिक रूप से पंच क्लेश मानव जीवन के बंधनों का प्रतीक हैं। इनसे मुक्ति का मार्ग ज्ञान,
वैराग्य, और योगाभ्यास है। जब मनुष्य आत्मा के स्वरूप का बोध कर लेता है, तब ये क्लेश मिट जाते हैं और वह कैवल्य की अवस्था प्राप्त करता है।
मनोवैज्ञानिक सारांश
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पंच क्लेश मानव की अवचेतन प्रवृत्तियों का चित्रण हैं। ये व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास, भावनात्मक संतुलन, और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालते हैं। योगाभ्यास के माध्यम से मनोवैज्ञानिक शुद्धि एवं आत्मसंतुलन संभव है।
निष्कर्ष
पातंजलि योगसूत्र में वर्णित पंच क्लेश मानव मन के गहन विश्लेषण का दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रतिरूप हैं। ये क्लेश न केवल योगशास्त्र का, बल्कि आधुनिक मनोविज्ञान का भी मूलभूत विषय हैं। योग का अभ्यास इन क्लेशों से मुक्ति दिलाकर व्यक्ति को शांति, संतुलन और आत्मबोध की ओर ले जाता है।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥ (योगसूत्र १।३)
जब क्लेशों और चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाती है। यही योग का परम लक्ष्य है।
No comments:
Post a Comment