Friday, 3 October 2025

 

क्रियायोग का तुलनात्मक अध्ययन

(विभिन्न शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य में)

लेखक: डॉ. बलवंत सिंह, ठाणे 

भूमिका
भारतीय योगदर्शन में क्रियायोग साधना की एक व्यावहारिक पद्धति है, जो साधक के जीवन में आत्मशुद्धि, अनुशासन और ईश्वर-समर्पण की भावना उत्पन्न करती है। पतञ्जलि योगसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है, किन्तु अन्य शास्त्रों एवं परम्पराओं में भी इसके विविध रूप दिखाई देते हैं। इस निबंध में क्रियायोग का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है, जिससे उसके विविध स्वरूप एवं महत्व स्पष्ट होते हैं।

1.पतञ्जलि योगसूत्र में क्रियायोग: पतञ्जलि (योगसूत्र .) में कहा गया है:-

तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः
(तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान मिलकर क्रियायोग कहलाते हैं।)

यह साधना साधक में आत्मसंयम, आत्मज्ञान और ईश्वर-समर्पण का विकास करती है। इसका उद्देश्य चित्तशुद्धि और ध्यानयोग की तैयारी है।

. भगवद्गीता में क्रियायोग: गीता में प्रत्यक्ष रूप सेक्रियायोगशब्द नहीं मिलता, परन्तु उसके तत्व कर्मयोग, ध्यानयोग और भक्ति में निहित हैं। श्रीकृष्ण निष्काम कर्म (.४७), तप (१७.१४१७), जप और ईश्वर-अर्पण का उपदेश देते हैं। यह दृष्टिकोण साधक को जीवन में कर्तव्यपालन के साथ आत्मशुद्धि और ईश्वर-प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है।

. उपनिषदों में क्रियायोग: उपनिषदों, विशेषतः श्वेताश्वतर उपनिषद् में, तपस्या, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, विद्या और ईश्वर-भक्ति को साधना के अनिवार्य अंग माना गया है। यहाँ क्रियायोग आत्मविद्या और ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाली साधना है।

. हठयोग-प्रदीपिका में क्रियायोग: हठयोग-प्रदीपिका में क्रियायोग का स्वरूप शारीरिक शुद्धिकरण क्रियाओं के रूप में प्रकट होता है। इनमें षटकर्म (धौति, बस्ती, नेति, त्राटक, नौली, कपालभाति) प्रमुख हैं। इनका उद्देश्य शरीर और नाड़ियों की शुद्धि करना है, जिससे साधक उच्चतर ध्यानयोग के योग्य बन सके।

. भागवत पुराण में क्रियायोग: भागवत पुराण में क्रियायोग को भक्ति और साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें जप, स्वाध्याय, तप, श्रवण, कीर्तन और स्मरण आदि क्रियाओं को आत्मशुद्धि और ईश्वर-भक्ति का साधन माना गया है।

. आधुनिक परम्पराओं में क्रियायोग: लाहिड़ी महाशय और परमहंस योगानन्द की परम्परा में क्रियायोग एक विशिष्ट प्राणायाम और ध्यान-पद्धति है। यह साधना प्राण और चित्त पर नियन्त्रण के माध्यम से साधक को आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर-प्राप्ति की ओर ले जाती है।

तुलनात्मक दृष्टि: सभी परम्पराओं में क्रियायोग का मुख्य उद्देश्य साधक के अंतःकरण की शुद्धि और आत्मोन्नति है। यद्यपि विभिन्न शास्त्रों में इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं:-

·       पतञ्जलि में यह तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान है।

·       गीता और उपनिषदों में यह कर्मयोग, ध्यान और भक्ति से सम्बद्ध है।

·       हठयोग में यह शारीरिक शुद्धिकरण क्रियाएँ हैं।

·       भागवत और अन्य पुराणों में यह भक्ति-साधना है।

·       आधुनिक परम्परा में यह प्राणायाम-आधारित ध्यान की वैज्ञानिक विधि है।

उपसंहार
क्रियायोग का स्वरूप युगानुसार और शास्त्रानुसार बदलता रहा है, किन्तु इसका मूल उद्देश्य (साधक का आन्तरिक शोधन, चित्त की एकाग्रता और परमात्मा से मिलन ) सदैव एक ही रहा है। इस प्रकार क्रियायोग भारतीय योगपरम्परा का एक सार्वभौमिक साधन है, जो अनुशासन, ज्ञान और भक्ति तीनों को समन्वित कर साधक को आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर करता है।

संदर्भ सूची:

1.     पतञ्जलि: योगसूत्र, ., व्याख्या : वाचस्पति मिश्र, तत्त्ववैशारदी।

2.     श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय (कर्मयोग), अध्याय (ध्यानयोग), अध्याय १७ (श्रद्धात्रयविभाग योग)

3.     श्वेताश्वतर उपनिषद्: अध्याय ., .१५ (तप, ब्रह्मचर्य और ईश्वर-भक्ति पर बल)

4.     स्वात्माराम: हठयोग प्रदीपिका, द्वितीय उपदेश (षटकर्म-वर्णन)

5.     व्यासदेव: श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कंध, अध्याय (भक्ति-क्रियाओं का वर्णन)

6.     योगानन्द, परमहंस (1946). Autobiography of a Yogi. Los Angeles: Self-Realization Fellowship.

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