भारतीय दर्शनों में वर्णित पंचकोषों का दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
लेखक:डा. बलवंत सिंह
सारांश (Abstract)
भारतीय दर्शन में मानव व्यक्तित्व को स्थूल शरीर से लेकर सूक्ष्म चेतना तक पाँच स्तरों में विभाजित किया गया है जिन्हें पंचकोष कहा जाता है; अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय। तैत्तिरीयोपनिषद् में प्रतिपादित यह सिद्धान्त मानव के समग्र विकास की दार्शनिक नींव रखता है। आधुनिक मनोविज्ञान जहाँ व्यक्ति के व्यवहार, अनुभूति और संज्ञान को समझने का प्रयास करता है, वहीं भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण इन सभी को चेतना के विकास की क्रमिक अवस्थाओं के रूप में देखता है। प्रस्तुत शोध-पत्र में पंचकोष सिद्धान्त का दार्शनिक विवेचन तथा उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। यह अध्ययन दर्शाता है कि पंचकोषीय दृष्टिकोण मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के समन्वित स्वरूप को स्पष्ट करता है।
मुख्य शब्द (Keywords): पंचकोष, तैत्तिरीयोपनिषद्, चेतना, मनोविज्ञान, योग, आत्मसाक्षात्कार, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष।
1. प्रस्तावना
भारतीय दर्शन मानव को केवल भौतिक देह के रूप में नहीं, बल्कि एक बहुस्तरीय चेतन सत्ता के रूप में देखता है। तैत्तिरीयोपनिषद् में वर्णित पंचकोष सिद्धान्त के अनुसार, मनुष्य के भीतर पाँच आवरण या कोष होते हैं —
“अन्नमयः, प्राणमयः, मनोमयः, विज्ञानमयः, आनन्दमयः।” (तैत्तिरीयोपनिषद् 2.1-5)
ये कोष क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म और अंततः परम चेतना की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं।
जहाँ आधुनिक विज्ञान व्यक्ति की बाह्य गतिविधियों और मस्तिष्कीय प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है, वहीं भारतीय दृष्टि इन प्रक्रियाओं के पीछे स्थित अंतःकरण, प्राणशक्ति और आत्मा की सत्ता को स्वीकार करती है।
2. तैत्तिरीयोपनिषद् में पंचकोष सिद्धान्त का दार्शनिक आधार
तैत्तिरीयोपनिषद् (ब्रह्मानन्दवल्ली) में पंचकोष सिद्धान्त का प्रतिपादन अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया है। उपनिषद् का उद्देश्य केवल मानव संरचना का वर्णन नहीं, बल्कि आत्मानुभूति की प्रक्रिया का प्रतिपादन है।
“अथ य एषोऽन्तरः पुरुषः अन्नमयः, तस्माद् अन्योऽन्तरः प्राणमयः, तस्माद् अन्योऽन्तरः मनोमयः, तस्माद् अन्योऽन्तरः विज्ञानमयः, तस्माद् अन्योऽन्तरः आनन्दमयः।” (तैत्तिरीयोपनिषद् 2.1-5)
इन पाँच कोषों की क्रमिक यात्रा मानव को बाह्य भौतिकता से आंतरिक चेतना की ओर अग्रसर करती है; अन्न (भौतिक) से आनन्द (आध्यात्मिक) की ओर।
3. पंचकोषों का दार्शनिक विश्लेषण
(क) अन्नमय कोष (स्थूल शरीर का आवरण):
यह कोष ‘अन्न’ से निर्मित है, अतः इसे अन्नमय कहा गया।
“अन्नाद् वै प्राणाः भूता अन्नेनैव जीवति।” (तैत्तिरीयोपनिषद् 2.2)
दार्शनिक रूप से यह प्रकृति का स्थूल अंश है। आत्मा का यह बाह्य आवरण परिवर्तनशील और नश्वर है।
योगदर्शन में अन्नमय कोष को स्वस्थ रखने हेतु आसन, आहार संयम और शारीरिक अनुशासन का महत्त्व बताया गया है।
मनोवैज्ञानिक रूप से यह “शारीरिक स्व” (Physiological
Self)
के समान है, जहाँ शरीर की दशा का सीधा प्रभाव व्यक्ति के मनोभावों पर पड़ता है।
(ख) प्राणमय कोष (जीवनशक्ति का आवरण):
“प्राणो ह वा अन्नस्याप्यन्तरः।” (तैत्तिरीयोपनिषद् 2.2)
यह कोष जीवन की गति का प्रतिनिधि है। यह शरीर और मन के बीच सेतु का कार्य करता है।
प्राण ही वह शक्ति है जो शरीर में गति, स्फूर्ति और संतुलन लाती है। दार्शनिक दृष्टि से यह सूक्ष्म शरीर का आधार है; जबकि मनोवैज्ञानिक रूप से यह व्यक्ति के ऊर्जा व भावनात्मक स्तर
(Emotional-Energetic Level) का द्योतक है।
योगशास्त्र में प्राणायाम द्वारा इस कोष का शुद्धीकरण होता है, जिससे मानसिक स्थिरता और भावनात्मक संतुलन प्राप्त होता है।
(ग) मनोमय कोष (विचार एवं भावना का आवरण):
“सङ्कल्प-विकल्पमयः मनोमयः।” (तैत्तिरीयोपनिषद् २.३)
यह कोष ‘मन’ से संबंधित है, जो व्यक्ति में इच्छाओं, भावनाओं और विचारों को जन्म देता है। दार्शनिक रूप से यह अहंकार और चित्त का क्षेत्र है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह संज्ञानात्मक एवं भावनात्मक प्रक्रियाओं का केंद्र है। इसी स्तर पर व्यक्ति द्वन्द्व, असंतोष, और तनाव का अनुभव करता है। योग में ध्यान और धारणा के अभ्यास द्वारा इस कोष की शुद्धि होती है।
(घ) विज्ञानमय कोष (बुद्धि एवं विवेक का आवरण):
“विज्ञानं यज्ञेन तनुते कर्माणि तनुतेऽपि च।” (तैत्तिरीयोपनिषद् २.४)
यह बुद्धि, निर्णय और विवेक का क्षेत्र है। यही वह कोष है जहाँ आत्मचिंतन और नैतिक चेतना का उदय होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह ‘ज्ञाना’ या विवेक-शक्ति का प्रतीक है। मनोवैज्ञानिक रूप से यह “Rational-Moral
Self” है, जो व्यक्ति को कर्म, नैतिकता और उत्तरदायित्व की दिशा देता है।
विवेक का विकास आत्मबोध की दिशा में आवश्यक चरण है।
(ङ) आनन्दमय कोष (आनन्द का आवरण):
“एष ह्येवानन्दयति।” (तैत्तिरीयोपनिषद् २.५)
यह आत्मा के सबसे समीप का आवरण है। यहाँ मनुष्य शुद्ध चेतना, तृप्ति और परमानन्द का अनुभव करता है। दार्शनिक दृष्टि से यह ब्रह्मानन्द की स्थिति है, जहाँ आत्मा स्वयं का साक्षात्कार करती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह “Transpersonal
State”
का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति के अहं का विलय होकर वह समग्र चेतना में एकरूप हो जाता है।
5. पंचकोषों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पंचकोषीय सिद्धान्त व्यक्ति के बहुआयामी व्यक्तित्व की गहन व्याख्या करता है।
अन्नमय कोष शरीर के भौतिक स्वास्थ्य का, प्राणमय कोष भावनात्मक ऊर्जा का, मनोमय कोष विचारों और संकल्पों का, विज्ञानमय कोष निर्णय और विवेक का, तथा आनन्दमय कोष आत्मिक शांति और आत्मसंतोष का प्रतिनिधित्व करता है। इन सभी स्तरों का संतुलन ही व्यक्ति को समग्र मानसिक स्वास्थ्य (Holistic Mental
Health) प्रदान करता है।
भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार, मानसिक असंतुलन केवल मनोमय या भावनात्मक स्तर का विकार नहीं है, बल्कि यह प्राण, बुद्धि या चेतना के असंतुलन का परिणाम भी हो सकता है। अतः योग और ध्यान जैसे उपाय इन सभी स्तरों को संतुलित करने का कार्य करते हैं।
5. योग एवं साधना में पंचकोषों की भूमिका
योगशास्त्र आत्म-साक्षात्कार को पंचकोषों की क्रमिक शुद्धि की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करता है।
·
अन्नमय शुद्ध: आसन, आहार संयम, शरीर की शुद्धि।
·
प्राणमय शुद्धि: प्राणायाम द्वारा श्वास-संतुलन।
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मनोमय शुद्धि: ध्यान एवं आत्मचिन्तन द्वारा मानसिक शांति।
·
विज्ञानमय शुद्धि: स्वाध्याय, साधना, और विवेक द्वारा।
·
आनन्दमय अनुभव: समाधि और आत्मानुभूति द्वारा।
“योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।” (पातञ्जलि योगसूत्र 1.2)
जब चित्तवृत्तियाँ शांत होती हैं, तब व्यक्ति आनन्दमय कोष में स्थित आत्मानन्द का अनुभव करता है।
6. पंचकोषीय दृष्टि और आधुनिक मनोविज्ञान
आधुनिक मनोविज्ञान मुख्यतः व्यवहारिक, संज्ञानात्मक और भावनात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। किन्तु भारतीय पंचकोषीय दृष्टि उससे आगे जाकर अध्यात्म और चेतना को भी मनुष्य के विकास का अभिन्न अंग मानती है। जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान मनुष्य के बाह्य व्यवहार को मापने का प्रयास करता है, वहीं पंचकोषीय दृष्टि व्यक्ति के आन्तरिक संतुलन को मूल कारण मानती है।
इस प्रकार पंचकोष सिद्धान्त को Holistic
Psychology की भारतीय अवधारणा कहा जा सकता है, जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को एक ही विकास-रेखा पर रखती है।
7. निष्कर्ष
पंचकोष सिद्धान्त भारतीय चिंतन की गहराई और वैज्ञानिकता दोनों को प्रकट करता है। यह बताता है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं, बल्कि चेतना की पाँच परतों से निर्मित एक पूर्ण अस्तित्व है।
इन कोषों की क्रमिक शुद्धि द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार संभव है।
दार्शनिक रूप से यह सिद्धान्त मनुष्य को परमात्मा से जोड़ता है, और मनोवैज्ञानिक रूप से यह व्यक्ति के सामान्य मानसिक स्वास्थ्य से लेकर परमानंद की अवस्था तक की सम्पूर्ण यात्रा का वैज्ञानिक प्रतिरूप प्रस्तुत करता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि पंचकोषीय दृष्टि भारतीय मनोविज्ञान की आत्मा है, जो शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा के समन्वित विकास की पूर्ण प्रक्रिया को प्रतिपादित करती है।
8. संदर्भ सूची (References)
1.
तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली, श्लोक 2.1-5।
2.
पातञ्जलि योगसूत्रम्, अध्याय 1, सूत्र 2।
3.
आचार्य शंकर, तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्य, अद्वैताश्रम, वाराणसी।
4.
रामचन्द्र मिश्रा, भारतीय दर्शन का मनोवैज्ञानिक आधार, दिल्ली: भारतीय विद्या भवन, 2018।
5.
स्वामी विवेकानन्द, राजयोग, अद्वैत आश्रम, कोलकाता।
6.
दार्शनिक योगानन्द, द साइंस ऑफ माइंड एंड सोल,
2015।
7.
शर्मा, राजेन्द्र प्रसाद (2020). भारतीय मनोविज्ञान: चेतना के स्तर, नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास।
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