सामाजिक समरसता पर षटचक्रों का प्रभाव
इस
विषय को समझने के लिए हमें पहले दो दृष्टिकोण अपनाने होंगे
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योग-तांत्रिक दृष्टिकोण, जिसमें षटचक्र (मूलाधार से आज्ञा तक) को व्यक्ति के आंतरिक चेतना-केन्द्र के रूप में देखा जाता है।
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सामाजिक-मानसिक दृष्टिकोण, जिसमें इन चक्रों की सक्रियता और संतुलन का प्रभाव व्यक्ति के आचरण, संबंधों और सामूहिक जीवन पर पड़ता है।
1. षटचक्रों का संक्षिप्त परिचय
षटचक्र साधना-मार्ग में बताए गए छह प्रमुख ऊर्जा-केन्द्र हैं:
a.
मूलाधार चक्र (Mulādhāra): सुरक्षा, स्थिरता और जीवन-आधार का केन्द्र।
b.
स्वाधिष्ठान चक्र (Svādhiṣṭhāna): भावनाओं, रचनात्मकता और सामाजिक संबंधों का केन्द्र।
c.
मणिपूर चक्र (Maṇipūra):
आत्मविश्वास, इच्छाशक्ति और सामाजिक जिम्मेदारी का केन्द्र।
d.
अनाहत चक्र (Anāhata): प्रेम, करुणा और सहानुभूति का केन्द्र।
e.
विशुद्धि चक्र (Viśuddhi):
संचार, सत्य-भाषण और संवाद का केन्द्र।
f.
आज्ञा चक्र (Ājñā): विवेक, दृष्टि और मार्गदर्शन का केन्द्र।
2. सामाजिक समरसता में इनका योगदान
(क) मूलाधार चक्र: सुरक्षा और स्थिरता: जब यह चक्र संतुलित होता है, व्यक्ति भय या असुरक्षा से मुक्त होकर दूसरों के साथ सहयोग कर सकता है। समाज में स्थिर और विश्वासपूर्ण संबंधों की नींव इसी पर है। असंतुलन होने पर संदेह, भय और संघर्ष की प्रवृत्ति बढ़ती है।
(ख) स्वाधिष्ठान चक्र: भावनात्मक सामंजस्य: संतुलित स्वाधिष्ठान से व्यक्ति भावनात्मक रूप से खुला और रचनात्मक होता है, जिससे समूह में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनता है। असंतुलन होने पर ईर्ष्या, द्वेष और सामाजिक अलगाव उत्पन्न होता है।
(ग) मणिपूर चक्र: आत्मबल और जिम्मेदारी: यह चक्र संतुलित होने पर व्यक्ति अपने दायित्व निभाता है और सामूहिक भलाई के लिए कार्य करता है। असंतुलन में अहंकार, सत्ता-लालसा और वर्चस्व की प्रवृत्ति सामाजिक विघटन का कारण बनती है।
(घ) अनाहत चक्र: प्रेम और करुणा: यह चक्र सामाजिक समरसता का हृदय है। संतुलन से निस्वार्थ सेवा, क्षमा और सहयोग की भावना आती है। असंतुलन होने पर संवेदनहीनता और विभाजन की भावना पनपती है।
(घ) विशुद्धि चक्र: सत्य और संवाद: संतुलित विशुद्धि से संवाद में पारदर्शिता और विश्वास आता है, जो सामाजिक सौहार्द के लिए आवश्यक है। असंतुलन से गलतफहमी, अफवाह और अविश्वास फैलते हैं।
(च) आज्ञा चक्र: दृष्टि और मार्गदर्शन: संतुलित आज्ञा चक्र से व्यक्ति विवेकपूर्ण निर्णय लेता है, जिससे सामूहिक हित सुरक्षित रहते हैं। असंतुलन से निर्णय में पक्षपात और दूरदृष्टि की कमी आती है।
3. समग्र दृष्टि
अ) आंतरिक संतुलन → बाहरी सामंजस्य: योग-दर्शन मानता है कि व्यक्ति का आंतरिक ऊर्जा-संतुलन सीधे उसके सामाजिक व्यवहार में झलकता है।
आ) षटचक्र जागरण और सामाजिक विकास: जब व्यक्ति अपने चक्रों को संतुलित रखता है, तो उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण, जिम्मेदार और सहयोगी बनता है—जो सामाजिक समरसता की नींव है।
4. निष्कर्ष
षटचक्र केवल योगिक साधना का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का भी आधार हैं। उनका संतुलन व्यक्ति को भय, लोभ, ईर्ष्या जैसी विघटनकारी प्रवृत्तियों से मुक्त कर प्रेम, सत्य, विवेक और सेवा के मार्ग पर ले जाता है। जब व्यक्ति-व्यक्ति का यह संतुलन बढ़ता है, तो समाज में स्वाभाविक रूप से शांति, सहयोग और एकता का वातावरण निर्मित होता है।
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