योगसाधना की प्रगति में नौ अंतराय:
मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि
लेखक: डॉ. बलवंत सिंह, ठाणे (महाराष्ट्र)
प्रस्तावना
पतञ्जलि योगसूत्र योगशास्त्र का आधारभूत ग्रंथ
है। योगसूत्र (1.30) में योगाभ्यास की प्रगति में बाधक नौ अंतरायों का उल्लेख मिलता
है। ये अंतराय केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक
स्तर पर साधक के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करते हैं। यदि साधक इन अंतरायों को समझकर
उनका समाधान ढूँढ ले, तो साधना का मार्ग सुगम और सफल हो सकता है।
पतञ्जलि
कहते हैं:
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति
भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः
(योगसूत्र
1.30)
अर्थात्, व्याधि (रोग), स्त्यान (जड़ता), संशय
(संदेह), प्रमाद (लापरवाही), आलस्य (आलस), अविरति (इन्द्रिय-तृष्णा), भ्रान्तिदर्शन
(भ्रमपूर्ण दृष्टि), अलाभभूमिकत्व (साधन-अयोग्यता) और अनवस्थितत्व (स्थिरता का अभाव)
– ये चित्त के विक्षेप हैं और योगमार्ग के अंतराय हैं।
इन अंतरायों को हम दो दृष्टियों से समझ सकते
हैं – मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक।
1.
व्याधि (रोग)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: शारीरिक रोग के साथ-साथ
मानसिक विकार जैसे तनाव, चिंता या अवसाद साधना में बाधा डालते हैं। बीमार शरीर और अस्वस्थ
मन साधक को एकाग्र होने नहीं देते।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: शरीर और मन आत्मा
के उपकरण हैं। रोग इन्हें मलिन और दुर्बल बना देता है जिससे साधक आत्मचेतना के मार्ग
पर आगे नहीं बढ़ पाता।
2.
स्त्यान (जड़ता / उत्साहहीनता)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: जब व्यक्ति में ऊर्जा
का प्रवाह नहीं रहता या प्रेरणा का अभाव होता है तो वह उदासीन और निष्क्रिय हो जाता
है। यह मानसिक अवसाद और आत्मविश्वास की कमी से जुड़ा है।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: साधक में जब साधना
के प्रति श्रद्धा और उत्साह नहीं रहता, तब वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर कदम नहीं बढ़ा
पाता।
3.
संशय (संदेह)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: संदेह व्यक्ति की
निर्णय-क्षमता को नष्ट करता है। “क्या यह साधना सही है? क्या मुझे लाभ होगा?” ऐसे प्रश्न
साधना की निरंतरता को तोड़ते हैं।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: श्रद्धा ही साधना
का आधार है। गुरु, शास्त्र और साधना पर संशय साधक को आत्मज्ञान से दूर कर देता है।
4.
प्रमाद (लापरवाही)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: लापरवाही और असावधानी
से साधक अनुशासन नहीं रख पाता। अभ्यास में ढिलाई मनोबल को कमजोर कर देती है।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: साधना में आवश्यक
सततता और निष्ठा का अभाव साधक को मार्ग से भटका देता है। प्रमाद अज्ञान और असंयम की
जड़ है।
5.
आलस्य (आलस)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: आलस्य मानसिक जड़ता
और शारीरिक निष्क्रियता का परिणाम है। यह व्यक्ति को काम टालने और अभ्यास स्थगित करने
की प्रवृत्ति देता है।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: आलस्य साधना में
ऊर्जा को रोक देता है। जागृति की बजाय जड़ता प्रबल होती है और साधक आध्यात्मिक अनुभव
से वंचित रहता है।
6.
अविरति (इन्द्रिय-तृष्णा)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: भोग-वासनाएँ और लिप्साएँ
मनुष्य को बार-बार बाह्य आकर्षणों की ओर खींचती हैं। यह मन को चंचल और अस्थिर बनाती
हैं।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: आत्मचेतना की प्राप्ति
के लिए इन्द्रिय-विषयों से विरक्ति आवश्यक है। इन्द्रिय-तृष्णा साधक को संसारिक मोहजाल
में बाँधे रखती है।
7.
भ्रान्तिदर्शन (भ्रमपूर्ण दृष्टि)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: भ्रम या गलत धारणाएँ
व्यक्ति को वास्तविकता से दूर करती हैं। यह मन की भ्रांतियों और गलत मान्यताओं का परिणाम
है।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: सत्य के विपरीत दृष्टि
साधक को माया और अज्ञान में उलझा देती है। भ्रान्तिदर्शन साधना की दिशा को ही भटका
देता है।
8.
अलब्धभूमिकत्व (साधन-अयोग्यता)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: जब साधक मानसिक रूप
से परिपक्व नहीं होता या आवश्यक योग्यता का विकास नहीं कर पाता, तो अभ्यास का लाभ नहीं
ले पाता।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: यह स्थिति साधक की
अपरिपक्व आध्यात्मिक भूमि को दर्शाती है। वह अभी उच्च साधना के योग्य नहीं होता और
निराशा अनुभव करता है।
9.
अनवस्थितत्व (स्थिरता का अभाव)
·
मनोवैज्ञानिक दृष्टि: निरंतरता और धैर्य
का अभाव साधना की प्रगति रोक देता है। मन बार-बार बिखर जाता है और साधक स्थिर नहीं
हो पाता।
·
आध्यात्मिक दृष्टि: साधक कुछ उपलब्धियाँ
प्राप्त करने के बाद उन्हें स्थिर नहीं रख पाता। आध्यात्मिक यात्रा में यह उतार-चढ़ाव
अंततः साधना की गहराई को बाधित करता है।
समाधान
पतञ्जलि योगसूत्र
(1.32) में इन अंतरायों को दूर करने का उपाय बताया गया है:
“तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥”
साधक को एक तत्त्व (ईश्वर, आत्मा या किसी उच्च आदर्श) का निरंतर अभ्यास करना चाहिए।
इसके
अतिरिक्त
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श्रद्धा (faith): साधना में विश्वास
और दृढ़ता।
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वीर्य (energy): उत्साह और लगन।
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स्मृति (memory): आत्मानुभव और अभ्यास
का स्मरण।
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समाधि
(absorption):
गहन एकाग्रता।
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प्रज्ञा
(wisdom):
सही दृष्टि और विवेक।
ये गुण साधक को अंतरायों से मुक्त कर उन्नति
की ओर ले जाते हैं।
निष्कर्ष
नौ अंतराय योगमार्ग की स्वाभाविक चुनौतियाँ
हैं। ये साधक की मानसिक दुर्बलताओं और आध्यात्मिक अपरिपक्वता को दर्शाते हैं। मनोवैज्ञानिक
दृष्टि से ये विकार साधना की एकाग्रता और अनुशासन को बाधित करते हैं, जबकि आध्यात्मिक
दृष्टि से ये आत्मचेतना की प्राप्ति में रुकावट हैं।
इनका समाधान अभ्यास, विरक्ति, श्रद्धा और गुरु-उपदेश से संभव है। जब साधक इन बाधाओं
को पहचानकर उनका निवारण करता है, तभी योगसाधना का अंतिम लक्ष्य (समाधि और आत्मसाक्षात्कार)
सुलभ हो पाता है।
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