तस्य वाचकः प्रणवः
(ॐ का दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक विश्लेषण)
1. प्रस्तावना
“तस्य वाचकः प्रणवः” पतञ्जलि योगसूत्र (1.27)
अर्थात्, ईश्वर का वाचक (सूचक) प्रणव (ॐ) है। यहाँ यह सूत्र ईश्वर के निराकार, अव्यक्त और असीम स्वरूप की ओर संकेत करता है। ईश्वर को सीधे शब्दों में व्यक्त करना मानवीय भाषा की सीमा से परे है। अतः मानव मन और भाषा के लिए आवश्यक है कि वह ईश्वर के अनुभव और ध्यान के लिए किसी प्रतीक का सहारा ले।
योगसूत्र (1.24) में ईश्वर की परिभाषा इस प्रकार दी गई है:
“क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः”
अर्थात्, ईश्वर वह पुरुषविशेष है जो क्लेश (दुःख और मानसिक विकार),
कर्म (कर्मों की श्रृंखला), विपाक (कर्मों के फल) और
आशयों (मन और बुद्धि के आसक्तियों) से परे है।
इस सन्दर्भ में प्रणव केवल एक ध्वनि नहीं है, बल्कि यह ब्रह्म का प्रत्यक्ष प्रतीक, आत्मानुभूति का मार्ग और ध्यान का केंद्र भी है।
संस्कृत टिप्पणी:
तस्य वाचकः प्रणवः – यहाँ “वाचकः” शब्द से स्पष्ट है कि ईश्वर का स्वरूप और अस्तित्व हमारे उच्चतर चेतना में सीधे अनुभव के लिए नहीं बल्कि ध्यान और स्मरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
ॐ – यह ध्वनि तीन गुणों
(अकार, इकार, उकार) के समन्वय से ब्रह्म की त्रैकालिक और त्रिगुणात्मक प्रकृति का संकेत देती है।
2. प्रणव का महत्व
a.
आध्यात्मिक प्रतीक:
·
ईश्वर अव्यक्त और निराकार है, अतः ध्यान और साधना के लिए मन को किसी स्थिर और चिन्हित बिंदु की आवश्यकता होती है।
·
प्रणव (ॐ) इस स्थिर बिंदु का कार्य करता है और साधक को ब्रह्म की ओर निर्देशित करता है।
b.
ध्यान और समाधि में सहायक:
·
शांति और ध्यान की प्रक्रिया में ॐ का उच्चारण मस्तिष्क और चेतना को केन्द्रित करता है।
·
यह उच्चारण न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि चेतना को ब्रह्मतत्त्व के अनुभव की ओर उन्मुख करता है।
c.
शास्त्रीय दृष्टि:
·
शास्त्रों में प्रणव को सर्वध्वनि कहा गया है, क्योंकि इसमें ब्रह्म का संपूर्ण सार और प्रकृति निहित है।
·
इसे मंत्र या ध्वनि मात्र नहीं, बल्कि अनुभूति का माध्यम माना गया है।
संस्कृत टिप्पणी:
ॐ इत्येतत् सर्ववर्णनमनन्तं ब्रह्मैकं प्रतिनिधित्वं करोति।
अर्थात् ॐ में ब्रह्म का समग्र स्वरूप और अनंतता प्रतिबिंबित होती है।
3. निष्कर्ष
पतञ्जलि का यह सूत्र स्पष्ट करता है कि ईश्वर का स्वरूप मानव चेतना से परे है, अतः ध्यान और साधना के लिए प्रणव एक आवश्यक और प्रभावकारी प्रतीक है। यह केवल ध्वनि नहीं, बल्कि ब्रह्म की अनुभूति का मार्ग, आध्यात्मिक ध्यान का साधन और मन की केन्द्रित शक्ति का स्रोत है।
2.
प्रणव का दार्शनिक आधार
2.1
वाचक और वाच्य
दार्शनिक भाषाशास्त्र में वाचक और वाच्य की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है।
a.
वाचक वह ध्वनि, शब्द या चिन्ह है जिससे किसी वस्तु या भाव का बोध होता है।
b.
वाच्य वह वस्तु या भाव है जिसका बोध वाचक के माध्यम से होता है।
संस्कृत में इसे इस प्रकार कहा गया है:
"वाचकं वाच्ये चाभिधत्ते यथार्थतः।"
अर्थात् वाचक वह है जिसके द्वारा वाच्य (सत्य या अर्थ) का बोध होता है।
प्रणव (ॐ) यहाँ वाचक के रूप में कार्य करता है, और ईश्वर या परम सत्ता वाच्य के रूप में। इस दृष्टि से, प्रणव सिर्फ एक ध्वनि नहीं, बल्कि वह चिन्ह है जिससे ब्रह्म का बोध होता है।
2.2
प्रणव: ईश्वर का ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व
प्रणव "ॐ" केवल एक ध्वनि नहीं है, बल्कि ईश्वर के सर्वव्यापी स्वरूप का प्रतीक है।
योगसूत्र (1.27) में पतञ्जलि ने स्पष्ट किया है:
"तस्य वाचकः प्रणवः।"
अर्थात् ईश्वर का वाचक (सूचक) प्रणव है।
इस प्रकार, जब कोई साधक ॐ का जप करता है, तो वह केवल ध्वनि का उच्चारण नहीं करता, बल्कि ईश्वर के स्वरूप का अनुभव करने का प्रयास करता है।
2.3
ऋग्वैदिक दृष्टि
वैदिक साहित्य में ध्वनि और नाद को सृष्टि का मूल तत्व माना गया है। ऋग्वेद में कहा गया है:
"नादो ब्रह्म"
अर्थात् सृष्टि का मूल नाद है।
इस सन्दर्भ में ॐ को आदिनाद कहा गया है, जिससे सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ। आदिनाद के रूप में ॐ को ब्रह्म की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति माना गया है।
संसार के प्रत्येक रूप में यह नाद व्याप्त है।
2.4
भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि
भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से प्रणव का महत्व अनिवार्य है।
a.
मानसिक संतुलन – ॐ जप से मन की विक्षिप्त प्रवृत्तियाँ शान्त होती हैं।
b.
चेतना का विकास – यह उच्चारित ध्वनि चेतना को जाग्रत और केंद्रित करती है।
c.
आध्यात्मिक अनुभूति – साधक को अपने भीतर की गहन शांति और समाधि की अनुभूति होती है।
संस्कृत में इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है:
"ॐ भूर् भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।"
यह गायत्री मंत्र का आरम्भिक स्वरूप है, जिसमें ॐ को संपूर्ण सृष्टि और चेतना का प्रतीक माना गया है।
2.5
निष्कर्ष
प्रणव का दार्शनिक आधार इस प्रकार है:
·
यह वाचक के रूप में ईश्वर का प्रतीक है।
·
यह नाद के रूप में सृष्टि की उत्पत्ति का संकेत है।
·
यह साधना के माध्यम से मानसिक शांति और चेतना के विकास का साधन है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रणव केवल ध्वनि नहीं, बल्कि ब्रह्म का ध्वन्यात्मक स्वरूप और साधक के लिए ध्यान का केंद्र है।
3.
उपनिषदों में प्रणव
प्रणव (ॐ) का महत्व वेदांत और उपनिषदों में अत्यधिक है। इसे न केवल एक ध्वनि माना गया है, बल्कि यह सृष्टि का आधार, चेतना का प्रतीक और परमात्मा का चिन्ह भी है। उपनिषदों में प्रणव के विवेचन को समझने के लिए मुख्य रूप से माण्डूक्य, कठोपनिषद् और श्वेताश्वतर उपनिषद् पर ध्यान दिया जाता है।
3.1
माण्डूक्य उपनिषद्
माण्डूक्य उपनिषद् में प्रणव का वर्णन अत्यंत गूढ़ और वैज्ञानिक दृष्टि से किया गया है। श्लोक है:
ॐ इत्येतदक्षरमिदं सर्वम्।
(यह सम्पूर्ण जगत् ॐ में ही स्थित है।)
यहाँ “अक्षरम्” का अर्थ है वह अक्षर या ध्वनि जो अक्षराणि (letters) और शब्दों से परे है, अर्थात् शाश्वत और अजर-अमर। माण्डूक्य उपनिषद् चार अवस्थाओं में चेतना का विवेचन करता है और इसे ॐ के चार घटकों से जोड़ता है:
1. अ (A): जाग्रत् अवस्था
·
यह भौतिक जगत् का अनुभव है।
·
जगत् के द्वैत और भोग इस अवस्था में अनुभव होते हैं।
·
टीका:“अक्षरं ‘अ’ जाग्रत्स्वरूपेण प्रत्यक्षं जगत् दर्शयति।”
2. उ (U): स्वप्न अवस्था
·
यह मन और भावनाओं की दुनिया है।
·
यहाँ व्यक्ति अनुभवों का आंतरिक रूप देखता है।
·
टीका: “उ स्वरः स्वप्नरूपेण मानसिक अनुभव दर्शयति।”
3. म (M): सुषुप्ति अवस्था
·
यह गहन निद्रा की अवस्था है, जिसमें शरीर-जगत् का संवेदी अनुभव नहीं रहता।
·
शुद्ध चेतना केवल भीतर ही स्थित होती है।
·
टीका: “म स्वरः सुषुप्तिस्वरूपेण अचेतन में चेतना का अंश दर्शयति।”
4. अनुनासिक नाद – तुरीय अवस्था
·
यह परम चेतना या ब्रह्मानुभव की अवस्था है।
·
इस स्थिति में सब भेद समाप्त हो जाते हैं और आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में अनुभव होती है।
·
टीका: “अनुनासिक नादोऽयं तुरीयः, आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मानुभव का स्वरूप।”
माण्डूक्य उपनिषद् में स्पष्ट है कि ॐ का उच्चारण केवल ध्वनि नहीं, बल्कि चारों चेतनात्मक अवस्थाओं का प्रतीक है।
3.2
कठोपनिषद्
कठोपनिषद् में प्रणव का प्रयोग साधक के ब्रह्मचर्य और साधना के उद्देश्य को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए किया गया है। श्लोक है:
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।
साधक अपने ब्रह्मचर्य के उद्देश्य को इस पद “ॐ” में संक्षेपित करता है।
टीका:
·
यहाँ ‘ॐ’ केवल एक ध्वनि नहीं, बल्कि संकल्प, साधना और लक्ष्य का प्रतीक है।
·
साधक जब ब्रह्मचर्य का पालन करता है और ज्ञान की प्राप्ति हेतु आत्म-नियमन करता है, तो संपूर्ण अनुभव और साधना का सार ‘ॐ’ में समाहित होता है।
·
यह उपनिषद् बताता है कि मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभव का अंतिम सार ध्वन्यात्मक रूप में ॐ में निहित है।
3.3
श्वेताश्वतर उपनिषद्
श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रणव को परमात्मा का ध्वन्यात्मक स्वरूप बताया गया है। श्लोक है:
प्रणवो ध्वनिरूपस्त्वं नमस्तु सदाशिवः॥
हे सदाशिव! प्रणव ही तुम्हारा ध्वन्यात्मक स्वरूप है।
टीका:
·
प्रणव यहाँ ईश्वर की शाश्वतता और स्थायित्व का प्रतीक है।
·
‘ध्वनि-रूप’ का अर्थ है कि परमात्मा का अस्तित्व और चेतना केवल शब्दों या मनुष्य के समझ के दायरे में नहीं, बल्कि यह सम्पूर्ण सृष्टि में प्रकट है।
·
उपनिषद् में प्रणव का उच्चारण ध्यान और साधना का केंद्र है, जो साधक को सदाशिव की अनुभूति कराता है।
निष्कर्ष
1.
उपनिषदों में प्रणव (ॐ) केवल एक ध्वनि नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मज्ञान, चेतना की अवस्थाएँ और साधक की साधना का सार है।
2.
माण्डूक्य उपनिषद् : चेतना की चार अवस्थाएँ।
3.
कठोपनिषद् : साधना और ब्रह्मचर्य का संक्षिप्त प्रतिनिधित्व।
4.
श्वेताश्वतर उपनिषद् : परमात्मा का ध्वन्यात्मक स्वरूप।
संक्षेप में, ॐ में सम्पूर्ण जगत्, चेतना और परमात्मा का अनुभव निहित है।
4.
भगवद्गीता में प्रणव
भगवद्गीता में ‘प्रणव’ अर्थात् ॐ का अत्यंत महत्त्व है। यह न केवल वेदों का सार है, बल्कि आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन भी माना गया है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कई स्थलों पर ॐ को अपना स्वरूप और ब्रह्म का प्रतीक बताते हैं।
4.1
गीता
7.8
श्लोक:
“प्रणवः सर्ववेदेषु...”
वेदों में जो प्रणव (ॐ) है, वही मैं हूँ।
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ॐ ईश्वर का ध्वन्यात्मक स्वरूप है और सम्पूर्ण वेदों का आधार भी है।
4.2
गीता
8.13
श्लोक:
“ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥”
जो व्यक्ति शरीर त्यागते समय ‘ॐ’ का जप करते हुए मुझे स्मरण करता है, वह परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु-क्षण में भी ‘ॐ’ का जप मोक्षदायी है।
4.3
गीता
9.17
श्लोक:
“पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥”
मैं इस जगत का पिता, माता, धाता और पितामह हूँ। मैं ही वेद में जानने योग्य, पवित्र ॐकार, ऋक्, साम और यजुर हूँ।
यहाँ भगवान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि ॐ ही पवित्रतम है और सम्पूर्ण वेदों का सार उन्हीं में निहित है।
4.4
गीता
17.23
श्लोक:
“ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।”
‘ॐ’, ‘तत्’ और ‘सत्’ ये ब्रह्म के त्रिविध वाचक (सूचक) कहे गए हैं।
यह श्लोक दर्शाता है कि ईश्वर की अनुभूति हेतु इन तीनों का स्मरण और साधना आवश्यक है।
4.5
निष्कर्ष
1.
भगवद्गीता में ॐ को ईश्वर का संक्षिप्त और सम्पूर्ण प्रतीक बताया गया है।
2.
ॐ का जप और ध्यान मोक्ष का प्रमुख साधन माना गया है।
3.
यह केवल मंत्र नहीं, बल्कि आत्मसाक्षात्कार और परमगति का मार्ग है।
4.
गीता के अनुसार, ॐ, तत् और सत् – ये तीनों ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाने वाले त्रिविध मार्ग हैं।
5. योगसूत्र में प्रणव
1. प्रस्तावना
पतञ्जलि योगसूत्र ईश्वर की साधना और आत्मानुभूति के मार्ग को व्यवस्थित करने वाला महान ग्रन्थ है। ईश्वर का स्वरूप, उसका साधन और ध्यान किस प्रकार किया जाए, इसका संक्षिप्त और गूढ़ उत्तर पतञ्जलि ने “प्रणव” (ॐ) के माध्यम से दिया है।
2. सूत्र 1.27 –
“तस्य वाचकः प्रणवः”
व्याख्या (व्यासभाष्य):
“ईश्वरस्य नाम प्रणव एव, स च नाम सर्ववेदेषु प्रसिद्धः। तेन तस्य ध्यानं साधकः कुर्यात्।”
(ईश्वर का नाम ‘प्रणव’ है, और यह वेदों में सर्वत्र प्रसिद्ध है। अतः साधक को ईश्वर का ध्यान प्रणव के माध्यम से करना चाहिए।)
शंकर भाष्य:
“यथा शब्देन वस्तुनः स्मरणं भवति, तथा प्रणवेन ईश्वरस्मरणम्। प्रणवः ईश्वरस्य वाचकः इति।”
(जैसे शब्द से किसी वस्तु का स्मरण होता है, वैसे ही प्रणव से ईश्वर का स्मरण होता है। प्रणव ईश्वर का प्रतीक है।)
हिन्दी व्याख्या:
पतञ्जलि कहते हैं कि ईश्वर निराकार और अव्यक्त है। उसका प्रत्यक्ष रूप में ध्यान करना कठिन है। इसलिए उनके लिए एक वाचक (सूचक चिन्ह) आवश्यक है। वही वाचक है : “ॐ” (प्रणव)।
जैसे कोई नाम सुनकर हमें व्यक्ति की याद आती है, उसी प्रकार “ॐ” उच्चारण करने से ईश्वर का स्मरण होता है।
इस प्रकार “प्रणव” ईश्वर और साधक के बीच एक साँकेतिक सेतु का कार्य करता है।
3. सूत्र 1.28 –
“तज्जपः तदर्थभावनम्”
(उस ईश्वर-वाचक प्रणव का जप और उसके अर्थ का ध्यान करना चाहिए।)
संस्कृत भाष्य:
व्यासभाष्य:
“तस्य प्रणवस्य जपं कुर्यात्। पुनश्च तदर्थं भावयेत्। जपेन चित्तस्यैकाग्रता, भावनया च तदर्थानुभवः। तेन चित्तशुद्धिः।”
(साधक को प्रणव का जप करना चाहिए और उसके अर्थ का ध्यान भी करना चाहिए। जप से चित्त एकाग्र होता है और ध्यान से ईश्वर का अनुभव होता है। यही चित्तशुद्धि का कारण है।)
वाचस्पति मिश्र (तत्त्ववैशारदी):
“जपः पुनःपुनः उच्चारणम्, भावनं तदर्थस्मरणम्। उभयेन च चित्तवृत्तिनिरोधः साध्यते।”
(जप = बार-बार उच्चारण, और भावना = उसके अर्थ का स्मरण। दोनों से मिलकर चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।)
हिन्दी व्याख्या:
पतञ्जलि यहाँ बताते हैं कि केवल “ॐ” का जप पर्याप्त नहीं है, उसके साथ उसके अर्थ का चिन्तन भी आवश्यक है।
·
जप: बार-बार “ॐ” का उच्चारण करने से मन की चंचलता घटती है, एकाग्रता आती है।
·
भावना: जब साधक “ॐ” के अर्थ (ईश्वर की अखण्ड चेतना, अनन्तता और परिपूर्णता) का ध्यान करता है, तब उसका मन शुद्ध और स्थिर होता है।
इस प्रकार जप और ध्यान से साधक ईश्वर और आत्मा के तादात्म्य (एकत्व) का अनुभव करता है।
4. दार्शनिक विवेचन
1.
जप = साधक की वाणी और चित्त को एक लय में लाना।
2.
भावना = आत्मा और ईश्वर के बीच कोई भेद न मानना।
3.
जब यह अभ्यास गहराता है, तो मन की विक्षिप्तता (restlessness) कम होती है और साधक अन्तर्मुखी होकर अपने स्वरूप का अनुभव करता है।
4.
यह अनुभव अंततः कैवल्य (मोक्ष) की ओर ले जाता है।
5. निष्कर्ष
1.
पतञ्जलि योगसूत्र में “प्रणव” केवल ध्वनि नहीं, बल्कि ईश्वर तक पहुँचने का सर्वोत्तम साधन है।
2.
“तस्य वाचकः प्रणवः” → ईश्वर का प्रतीक प्रणव है।
3.
“तज्जपः तदर्थभावनम्” → उसका जप और अर्थ-चिन्तन साधक को ईश्वरानुभूति कराता है।
इस प्रकार प्रणव-जप योगमार्ग में मन की स्थिरता, आत्मशुद्धि और ईश्वर-साक्षात्कार का सहज उपाय माना गया है।
6. आधुनिक दृष्टि
प्रणव (ॐ) जप और आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से उसका प्रभाव
प्राचीन ग्रंथों और दार्शनिक परम्पराओं में प्रणव (ॐ) को ब्रह्म का प्रतीक तथा परम नाद (आद्यानाद) माना गया है। आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा पद्धति ने भी इस ध्वनि-जप और ध्यान की प्रक्रिया को गहराई से समझने का प्रयास किया है। विभिन्न शोधों और प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि प्रणव-जप केवल आध्यात्मिक अनुभव नहीं, बल्कि शारीरिक, मानसिक और तंत्रिका-तंत्र (nervous system) पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है।
(क) न्यूरोसाइंस की दृष्टि से:
1.
न्यूरोसाइंस यह बताता है कि जब व्यक्ति "ॐ" का जप करता है, तब मस्तिष्क में विशेष प्रकार की तरंगें (brainwaves) सक्रिय होती हैं।
2.
वैज्ञानिकों ने EEG (Electroencephalogram) परीक्षणों द्वारा पाया है कि "ॐ" जप के समय अल्फा (Alpha) और थीटा (Theta) ब्रेनवेव्स उत्पन्न होती हैं।
3.
अल्फा वेव्स (8–12
Hz) मानसिक शान्ति, विश्रान्ति और ध्यानावस्था का संकेत देती हैं।
4.
थीटा वेव्स (4–7
Hz) गहन ध्यान, अवचेतन मन की सक्रियता और सृजनात्मकता को बढ़ाती हैं।
इस प्रकार, न्यूरोसाइंस सिद्ध करता है कि प्रणव-जप से मस्तिष्क की गतिविधियाँ ध्यान और समाधि की अवस्था के अनुरूप हो जाती हैं।
(ख) मनोविज्ञान की दृष्टि से
1.
मनोवैज्ञानिक शोधों में यह पाया गया है कि नियमित रूप से "ॐ" का उच्चारण तनाव (stress), चिन्ता (anxiety) और अवसाद (depression) को कम करता है।
2.
जप की ध्वनि-तरंगें स्वायत्त तंत्रिका-तंत्र (Autonomic
Nervous System) को संतुलित करती हैं, जिससे तनाव हार्मोन (cortisol)
का स्तर घटता है।
3.
इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति में मानसिक शान्ति, आत्म-नियंत्रण और सकारात्मक भावनाएँ बढ़ती हैं।
4.
ध्यान और जप के अभ्यास से एकाग्रता (concentration) और स्मरण-शक्ति (memory) में भी वृद्धि होती है, जो आधुनिक जीवन की व्यस्तता में अत्यन्त आवश्यक है।
(ग) योग-चिकित्सा की दृष्टि से
1.
योग-चिकित्सा (Yoga Therapy) के क्षेत्र में प्रणव-जप को एक प्रभावी उपचार पद्धति माना जाता है।
2.
चिकित्सकों का मत है कि जो व्यक्ति नियमित रूप से "ॐ" का जप करता है, उसका श्वसन-तंत्र (respiratory system) और हृदय-तंत्र
(cardio-vascular system) अधिक स्वस्थ रहता है।
3.
जप से निकलने वाली कम्पन (vibrations) गले, फेफड़ों और तंत्रिका-तंत्र को उत्तेजित कर प्रतिरोधक क्षमता (immunity) को मज़बूत करती हैं।
4.
कई शोधों ने यह प्रमाणित किया है कि हृदय-रोग, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा और मानसिक विकारों में "ॐ" ध्यान और जप सहायक सिद्ध होता है।
5.
योग-साधना में प्रणव का प्रयोग ध्यान की गहराई को बढ़ाने और साधक को समाधि के निकट ले जाने का एक सशक्त साधन है।
निष्कर्ष:
आधुनिक विज्ञान, मनोविज्ञान और योग-चिकित्सा: तीनों दृष्टियों से यह स्पष्ट है कि प्रणव-जप केवल धार्मिक या आध्यात्मिक अभ्यास नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, एकाग्रता, तनाव-नियंत्रण और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यन्त लाभकारी है। यह प्राचीन साधना आज के आधुनिक जीवन में भी उतनी ही प्रासंगिक और उपयोगी है।
7.
निष्कर्ष
पतञ्जलि योगसूत्र का सूत्र “तस्य वाचकः प्रणवः” (योगसूत्र 1.27) केवल एक योग-दर्शन की अवधारणा नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्ण वैदिक परम्परा, उपनिषदों की अध्यात्म-दृष्टि और भगवद्गीता के सार को एक सूत्र में समाहित करता है।
a.
वेदों में: प्रणव (ॐ) सम्पूर्ण वेद का बीज है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक की समस्त मन्त्र-संहिता का मूल नाद ही प्रणव है। बिना ॐ के किसी भी वैदिक मन्त्र का उच्चारण अधूरा माना जाता है। यह सृष्टि का आदि-नाद और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की मूल ध्वनि है।
b.
उपनिषदों में: ॐ को ब्रह्म का प्रत्यक्ष ध्वन्यात्मक स्वरूप कहा गया है। माण्डूक्य उपनिषद् ने स्पष्ट किया कि (“ॐ इत्येतदक्षरमिदं सर्वम्”) यह सम्पूर्ण जगत् ॐ में ही स्थित है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरिय: इन चार अवस्थाओं का एकत्रित प्रतीक भी यही प्रणव है। इस प्रकार उपनिषदों में ॐ ब्रह्मज्ञान का द्वार और आत्मसाक्षात्कार की कुंजी है।
c.
भगवद्गीता में: श्रीकृष्ण ने कहा “प्रणवः सर्ववेदेषु” (गीता 7.8): मैं वेदों में प्रणव हूँ। वहीं (गीता 8.13) में यह स्पष्ट किया गया कि मृत्यु के समय जो साधक ॐ का स्मरण करते हुए देह का त्याग करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। इस प्रकार गीता में प्रणव न केवल परमात्मा का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि साधक के लिए मुक्ति का मार्ग भी बन जाता है।
d.
योगसूत्र में: पतञ्जलि ने ॐ के जप (तज्जपः तदर्थभावनम्) और ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियों को शांत करने तथा ईश्वर-साक्षात्कार का साधन बताया है। प्रणव-उच्चारण से मन एकाग्र होता है और साधक ईश्वर-चेतना से जुड़ जाता है।
अतः निष्कर्ष यह है कि ॐ मात्र ध्वनि नहीं, बल्कि ब्रह्म का प्रत्यक्ष स्वरूप है। यह साधना का आधार, आत्म-साक्षात्कार का साधन और परमगति का मार्ग है। प्रणव ही वह महामन्त्र
है जो वेद, उपनिषद्, गीता और योगसूत्र, सबको एक सूत्र में बाँध देता है।
संदर्भ सूची
1.
सम्पा.– स्वामी हरिहरानन्द अरण्य. पतञ्जलि. योगसूत्र (भाष्य सहित). कोलकाता: अद्वैत आश्रम, 1998.
2.
शंकराचार्य. उपनिषद्-भाष्य (बृहदारण्यक, छान्दोग्य, माण्डूक्य). अनुवाद– स्वामी माधवानन्द. कोलकाता: अद्वैत आश्रम, 1994.
3.
गीता प्रेस. श्रीमद्भगवद्गीता (टीका सहित). गोरखपुर: गीता प्रेस, 2018.
4.
सम्पा.– डॉ. सूर्यनारायण मिश्र. माण्डूक्य उपनिषद्, कठोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषद्. वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन, 2012.
5.
स्वामी विवेकानन्द. राजयोग. कोलकाता: अद्वैत आश्रम, 2017.
6.
सरस्वती, स्वामी सत्यानन्द. ध्यान योग और मन्त्र विज्ञान. मंगेर: बिहार स्कूल ऑफ़ योग, 2005.
7.
Koch, S. C.,
& Fischman, D.
“The Effects of Meditation and Chanting OM on the Nervous System.” Journal
of Consciousness Studies, 2016.
8.
Joshi, K. The Concept
of Om in Vedic and Upanishadic Literature. Delhi: Motilal Banarsidass,
2002.
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