Saturday, 25 October 2025

 

पातंजलि योगसूत्र में चित्त की वृत्तियाँ, उनका विश्लेषण एवं निरोध

लेखक: डॉ. बलवंत सिंह, ठाणे 

1. प्रस्तावना

भारतीय दर्शन में पातंजलि योगसूत्र एक ऐसा ग्रंथ है जो केवल आध्यात्मिक साधना का मार्गदर्शन नहीं करता, बल्कि मानव मन की गहन संरचना और उसकी गति-विधियों का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है। आज के युग में जब मानसिक विक्षोभ, तनाव, अवसाद एवं विचारों का अनियंत्रित प्रवाह जीवन की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है, तब पातंजलि का यह सूत्र:

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥(1.2)
चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है  और भी अधिक वैज्ञानिक एवं प्रासंगिक प्रतीत होता है।

सामान्यतः योग को केवल शारीरिक आसनों  तक सीमित समझा जाता है, जबकि पातंजलि का वास्तविक उद्देश्य शरीर को मोड़ना नहीं, बल्कि मन (चित्त) को साधना  है। योग का लक्ष्य है;  चित्त की चंचलता को पहचानना, समझना और उस पर स्वामित्व स्थापित करना। इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले चित्त की प्रकृति तथा  उसकी वृत्तियों को जाना जाए।

इसी तथ्य को आधार बनाकर पातंजलि चित्त को पाँच प्रमुख मानसिक रूपों (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति) में विभाजित करते हैं। इन वृत्तियों का विश्लेषण करते समय वे यह स्पष्ट करते हैं कि वृत्तियाँ दोष नहीं हैं; उनसे उत्पन्न होने वाली आसक्ति ही बंधन का मूल कारण है।

इस लेख में पातंजलि द्वारा वर्णित चित्त, उसकी पाँच वृत्तियों, उनसे उत्पन्न तादात्म्य (Identification) तथा उनके निरोध का विश्लेषण व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। उद्देश्य मात्र दार्शनिक विवेचन नहीं, बल्कि यह समझाना है कि; योग केवल साधना नहीं, बल्कि Mind Management की भारतीय पद्धति है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करने लगा है।

2. चित्त क्या है?

चित्त = मन + बुद्धि + अहंकार का संयुक्त क्रियात्मक रूप।

इसे आधुनिक मनोविज्ञान में Conscious & Subconscious Mind System कहा जा सकता है। यही चित्त अनुभव करता है, स्मरण रखता है, सोचता है, कल्पना करता है, और इन्हीं प्रक्रियाओं को वृत्तियाँ (mental modifications / patterns) कहा गया है।

3. चित्त की पाँच वृत्तियाँ

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः(1.6)

1.      प्रमाण: सत्य अथवा प्रमाणित ज्ञान

2.      विपर्यय: गलत ज्ञान या विपरीत धारणा

3.      विकल्प: कल्पना या तथ्यविहीन विचार

4.      निद्रा: निद्रा अथवा शून्यता का अनुभव

5.      स्मृतयः स्मृतियाँ या पूर्व में अनुभव किए गए संस्कार

अतः इस सूत्र का सार यह है कि :
चित्त की वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं: प्रमाण (सत्य ज्ञान), विपर्यय (मिथ्या ज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा (निद्रा) और स्मृति (स्मरण)

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाऽक्लिष्टाः॥(1.5)
चित्त की वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं : कुछ दुःखदायी (क्लिष्ट) तथा कुछ सुखदायी (अक्लिष्ट)

(a) प्रमाण (सत्य ज्ञान)

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि॥(1.7)

·       प्रत्यक्ष (इन्द्रिय ज्ञान),

·       अनुमान (तर्क द्वारा),

·       आगम / आप्तवचन (शास्त्र अथवा गुरु द्वारा)

विश्लेषण: आधुनिक विज्ञान भी यही तीन ज्ञान विधियाँ स्वीकार करता है — Observation, Inference, Testimony. प्रमाण वृत्ति सकारात्मक मानी गई है, किन्तु इससे भी आसक्ति हो सकती है, अतः यह बाँधने वाली भी हो सकती है।

(b) विपर्यय (मिथ्या ज्ञान)

मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्॥(1.8)
जिस वस्तु का वास्तविक रूप कुछ और है, परंतु मन उसे कुछ और समझता है।

मनोवैज्ञानिक उदाहरण: भ्रम, पूर्वाग्रह, मानसिक प्रोजेक्शन।

(c) विकल्प (कल्पना)

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः॥(1.9)
केवल शब्द या विचार है, वस्तु नहीं।

उदाहरण:भूत”, “स्वर्ग”, “मैं सबसे महान हूँ” (ये केवल मानसिक संरचनाएँ हैं।)

(d) निद्रा (गहरी अवचेतन वृत्ति)

अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा॥(1.10)
जब चित्त किसी वस्तु का अनुभव नहीं कर रहा, उस अभाव की अनुभूति ही निद्रा है।

आधुनिक दृष्टि: (Sleep is also a mental state: brain activity (theta/delta waves) continues) अतः यह भी एक वृत्ति है।

(e) स्मृति (स्मरण)

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः॥(1.11)
जो अनुभव किया गया और विस्मृत नहीं हुआ वही स्मृति है।

मनोवैज्ञानिक अर्थ: सब “Patterns” जो Subconscious Mind में जमा हैं।

4. वृत्तियों का मूल कारण: आसक्ति (Attachment / Identification)

पातंजलि स्पष्ट कहते हैं कि चित्त की वृत्तियाँ अपने आप में दोष नहीं हैं।
सोचना, याद रखना, कल्पना करना, जानना: ये सब मानसिक गतिविधियाँ स्वाभाविक हैं।
समस्या तब उत्पन्न होती है जब साधक स्वयं को उन वृत्तियों के साथ जोड़ लेता है, अर्थात् मैं ही यह विचार हूँ, मैं ही यह दुख हूँ, मैं ही यह स्मृति हूँ (यही तादात्म्य (Identification) या आसक्ति है।)

·       वृत्तियाँ + आसक्ति = बंधन

·       वृत्तियाँ + साक्षीभाव = मुक्ति

पातंजलि कहते हैं :

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥(1.3)
जब वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, तब देखने वाला (द्रष्टा, आत्मा) अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है।

अर्थात् जब मन स्थिर होता है, तब साधक को अनुभव होता है कि मैं मन नहीं हूँ, मैं मन का साक्षी हूँ।

इसके विपरीत:

वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥(1.4)
जब वृत्तियाँ सक्रिय रहती हैं, तब साधक उन्हीं के साथ रूप ग्रहण कर लेता है।

सरल शब्दों में :

यदि मन में क्रोध आया और मैं कहूँ मैं क्रोध में हूँ” → तो मैं क्रोध बन गया।

यदि मैं कहूँ क्रोध उत्पन्न हुआ है, मैं उसका साक्षी हूँ” → तो क्रोध क्षणभर  में ही विलीन होने लगता है

आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से

आजकल मनोचिकित्सा (Psychotherapy), Mindfulness Meditation और Cognitive Psychology भी यही कह रही है:

You are not your thoughts. Observe them, don’t become them.”

यह ठीक वही है जो पातंजलि सहस्राब्दियों पहले कह चुके “I am not the mind, I am the witness of the mind.”

वृत्तियाँ स्वाभाविक हैं, उनसे लड़ना नहीं है। उनमें उलझना नहीं है। उन्हें आते-जाते देखना है।

·       वृत्ति + आसक्ति = बंधन

·       वृत्ति + साक्षीभाव = मुक्ति

इसी साक्षीभाव का अभ्यास ही धीरे-धीरे वृत्ति-निरोध  में परिवर्तित होता है और वहीं से योग की वास्तविक यात्रा प्रारंभ होती है।

5. वृत्तियों का निरोध कैसे करें?

 (a) अभ्यास

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥(1.13)
चित्त को स्थिर रखने का प्रयास ही अभ्यास है।

दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः॥(1.14)
अभ्यास दीर्घकाल तक, निरन्तर और श्रद्धा से हो तो फल देता है।

(b) वैराग्य

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्॥(1.15)
जो दृश्य अदृश्य (स्वर्ग, सिद्धि आदि) विषयों से भी राग नहीं रखता वही वैराग्यवान् है।

6. अन्य सहायक उपाय

वृत्ति-निरोध के सहायक उपाय

चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए पातंजलि ने अभ्यास और वैराग्य के अतिरिक्त कुछ सहायक उपाय भी बताए हैं, जिनका उद्देश्य साधक के भावनात्मक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन को स्थापित करना है।

a. ईश्वर प्राणिधान (अहंकार शमन):

ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥(1.23)

अपने समस्त कर्मों और उनके फलों को ईश्वर को समर्पित कर देने से अहंकार का बोझ कम होता है। साधक स्वयं को कर्ता मानकर उपकरण मानता है। इस मनोभाव से चित्त का तनाव एवं संघर्ष समाप्त होता है।

b. मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा (भावनात्मक शुद्धि):

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥(1.33)

सुखी जनों के प्रति मैत्री, दुःखी जनों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं के प्रति हर्ष (मुदिता), तथा अपुण्य कर्म करने वालों के प्रति उपेक्षा; यह भावनात्मक साधना चित्त को संताप एवं द्वेष से मुक्त करती है। आधुनिक भाषा में कहें तो यह Emotional Cleansing Therapy है।

c. प्राणायाम (चित्त शमन):

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥ (1.34)

श्वास के प्रच्छर्दन (धीरे-धीरे बाहर छोड़ना) और विधारण (रोकना) द्वारा प्राण शांत होता है और उसी के साथ चित्त भी स्थिर होने लगता है। इसलिए प्राणयमन ही चित्तयमन का साधन बनता है।

d. ध्यान / एकाग्रता (स्थिरता):

वीतरागविषयं वा चित्तम्॥(1.37)

ऐसे व्यक्तियों या प्रतीकों पर ध्यान लगाना जो वैराग्यपूर्ण हों जैसे:- ऋषि, गुरु, अग्नि, सूर्य, मन्त्र आदि चित्त को स्थिर करता है। यह एक प्रकार की सकारात्मक मानसिक अभिसंधि (Positive Focusing) है।

7. उपसंहार

पातंजलि योगसूत्र में वर्णित चित्तवृत्ति-निरोध केवल आध्यात्मिक साधना का विषय नहीं, बल्कि यह जीवन जीने की एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक पद्धति है। पातंजलि यह स्पष्ट करते हैं कि मन को दबाना नहीं है, बल्कि उसे समझकर उसका स्वामी बनना है। चित्त की वृत्तियाँ (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति) मानव चेतना की स्वाभाविक गतियाँ हैं। इनका उन्मूलन नहीं, बल्कि इनसे उत्पन्न तादात्म्य (I am my thought) ही बंधन का कारण है।

योग बताता है कि:

मैं अपना विचार नहीं हूँ, मैं विचारों का साक्षी हूँ।

·       वृत्ति + आसक्ति = बंधन,

·       वृत्ति + साक्षीभाव = मुक्ति।

इसी साक्षीभाव को स्थिर करने के लिए अभ्यास और वैराग्य  मूल साधन हैं, जिनका सहयोग ईश्वर प्राणिधान, मैत्री-करुणा, प्राणायाम और ध्यान जैसे उपाय करते हैं। जब साधक इन साधनों के माध्यम से चित्त को स्थिर करना सीख लेता है, तब वह अपने भीतर स्थित द्रष्टा स्वरूप को अनुभव करता है, वही अनुभव योग  है।

आधुनिक मनोविज्ञान, न्यूरोसाइंस और माइंडफुलनेस भी आज यही सिद्ध कर रहे हैं कि Mind Observation leads to Mind Liberation” विचारों को देखना ही मुक्ति का आरम्भ है। पातंजलि ने सहस्राब्दियों पहले ही यह सत्य उद्घोषित कर दिया था।

अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि:

योग केवल शारीरिक आसन नहीं, बल्किमन-प्रबंधन का भारतीय मनोविज्ञानहै।
चित्त पर अधिकार ही योग है, और यही मानव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

1.     स्वामी हरिहरानंद: (सम्पादक) व्यास भाष्य सहित पातंजलि योगसूत्र, सम्पादक: स्वामी हरिहरानंद

2.     स्वामी विवेकानन्द: (भाष्यकार) पातंजलि योगदर्शन,

3.     आचार्य वाचस्पति मिश्र: (भाष्यकार) योगसूत्र भाष्य,

4.     ओशो, रजनीश: योग: ज्ञान और साधना राजपाल एंड संस।

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